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रीमेक से खुले नए रास्ते, दक्षिण की बड़ी कंपनी बनाएगी Hindi Movies

-दिनेश ठाकुर
किशोर कुमार की 'रंगोली' में शैलेंद्र ने बड़ा सटीक गीत लिखा था- 'छोटी-सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे।' दुनिया गोल है और जमाना घूम-फिरकर उन पड़ावों पर लौटता है, जहां से वह काफी पहले गुजर चुका है। खबर है कि फिल्में बनाने वाली दक्षिण की एक बड़ी कंपनी (इसकी पिछली फिल्म रजनीकांत की '2.0' थी) बॉलीवुड में सक्रिय हो रही है। ऐसे दौर में, जब दक्षिण की कई फिल्मों के हिन्दी रीमेक ( Hindi Remake ) तैयार हो रहे हैं, कंपनी को हिन्दी फिल्में ( Hindi movies ) बनाना फायदे का सौदा लग रहा है। किसी जमाने में दक्षिण की कई कंपनियां हिन्दी सिनेमा में सक्रिय थीं, लेकिन कई साल से 'गांव हमारा, शहर तुम्हारा' की तर्ज पर वे दक्षिण तक सिमटी हुई हैं। अब 'दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें' का सिलसिला फिर जुड़ता लग रहा है।

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हिन्दी फिल्मों में अति भावुकता दक्षिण की देन

हिन्दी सिनेमा की रंगत अलग-अलग दौर में बदलती रही है। शुरुआती दौर में इसने पौराणिक और ऐतिहासिक फिल्में ज्यादा बनाईं। फिर बंगाल से यथार्थवादी और पंजाब से संगीतप्रधान फिल्मों का झोंका आया। इसके बाद दक्षिण के मेलो ड्रामा (भावुकता से भरपूर नाटक) का सिक्का खूब जमा। हिन्दी फिल्मों में अति भावुकता दक्षिण की देन है। एक जमाना था, जब लोग दक्षिण की कंपनियों प्रसाद प्रोडक्शंस, एवीएम, जैमिनी पिक्चर्स आदि की फिल्में देखने यह तय मानकर घरों से निकलते थे कि इनमें रोना-धोना जरूर होगा। इन फिल्मों में अति भावुकता के साथ कभी-कभी तलवारबाजी और नायक की हद से ज्यादा उछलकूद भी देखने को मिल जाती थी। हिन्दी सिनेमा को 'लार्जर देन लाइफ' का मुहावरा भी दक्षिण में बनी हिन्दी फिल्मों ने दिया। ये फिल्में कभी उत्तर भारत में मसाला डोसा की तरह लोकप्रिय थीं।

भारत की पहली बोलती फिल्म

दक्षिण के दिग्गज फिल्मकार एल.वी. प्रसाद का नाम कभी हिन्दी सिनेमा में भी जाना-पहचाना था। निर्माता-निर्देशक के अलावा वे अभिनेता और सिनेमाटोग्राफर भी थे। उन्होंने भारत की पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' के साथ-साथ तमिल-तेलुगु की पहली बोलती फिल्मों 'कालीदास' और 'भक्त प्रह्लाद' में भी अभिनय किया। उनकी कंपनी प्रसाद प्रोडक्शंस ने 'शारदा', 'मिस मैरी', 'ससुराल', 'मिलन', 'छोटी बहन', 'दादी मां', 'जीने की राह', 'खिलौना', 'बिदाई', 'एक दूजे के लिए' जैसी कामयाब फिल्में बनाईं।

लाउड कॉमेडी पर रहता था जोर

दक्षिण की दूसरी कंपनियों ने भी एक तरफ 'बहार' (वैजयंतीमाला की पहली हिन्दी फिल्म), 'भाई-भाई', 'पैगाम', 'चोरी-चोरी', 'छाया', 'हम पंछी एक डाल के', 'इंसानियत' (दिलीप कुमार और देव आनंद के साथ वाली एकमात्र फिल्म), 'मैं चुप रहूंगी', 'दो कलियां', 'हाथी मेरे साथी' आदि घरेलू और रोमांटिक फिल्मों से साफ-सुथरा मनोरंजन परोसा, तो अस्सी के दशक में 'मवाली', 'हिम्मतवाला', 'तोहफा' आदि के जरिए हद से ज्यादा तड़क-भड़क और 'खुल्लम-खुल्ला' का खेल शुरू किया। ऐसी फिल्मों में लाउड कॉमेडी (इसमें कादर खान और शक्ति कपूर माहिर थे) पर जोर रहता था और गानों में तरह-तरह के कौतुक होते थे। कभी समुद्र किनारे कलशों की दुकान सजा दी जाती थी, तो कभी चार-पांच मिनट के गाने में दुनियाभर की साडिय़ां (तोहफा-तोहफा) लहराई जाती थीं। हिन्दी सिनेमा में अब दूसरी तरह के कौतुक चलते हैं। दक्षिण की कंपनी ने शायद इस हिसाब-किताब को समझकर ही बॉलीवुड का रुख किया है।

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दक्षिण की फिल्मों के मसालों को अखिल भारतीय मान्यता

दरअसल, जबसे कारोबारी मैदान में दक्षिण फिल्मों के रीमेक लम्बी रेस का घोड़ा साबित हुए हैं, दक्षिण की कंपनियों को लगने लगा है कि हिन्दी रीमेक उनके लिए भी लॉटरी साबित हो सकते हैं। 'राम और श्याम' से लेकर 'वो सात दिन', 'गजनी', 'सिंघम', 'रेडी', 'राउडी राठौड़', 'वांटेड', 'बॉडीगार्ड', 'विरासत', 'दयावान', 'बीवी नं. वन', 'नायक', 'जुड़वां' तक तमिल या तेलुगु फिल्मों के रीमेक हैं। अक्षय कुमार की नई फिल्म 'लक्ष्मी बम' भी तमिल की 'कंचना' का रीमेक है। जब दक्षिण की फिल्मों के मसालों को अखिल भारतीय मान्यता मिल रही है, तो वहां की कंपनियां इस मौके का फायदा उठाने से पीछे क्यों रहें।



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